ओलंपिक में पदकों की कमी वाले देश का कोई खिलाड़ी अगर स्वर्ण पदक जीत ले, तो निश्चित है कि पूरे देश का ध्यान सोने की उस चमक में ही खो जाएगा। लेकिन भाला फेंक प्रतियोगिता के स्वर्ण विजेता नीरज चोपड़ा ने हिंदी को लेकर एक चमकदार बात भी कही है। उन्होंने हिंदी के लिए जो गर्व बोध दिखाया है, उसकी ओर भी हिंदीभाषियों का ध्यान जरूर जाना चाहिए। हम आजादी के पचहत्तरवें साल में प्रवेश कर चुके हैं। अव्वल तो इतने बरसों में हमारा भावपक्ष इस हद तक भारतीय हो जाना चाहिए था कि सार्वजनिक स्थानों पर अपनी भाषाएं बोलने में हमें कोई हिचक या शर्म नहीं हो। लेकिन दुर्भाग्यवश अब तक ऐसा नहीं हो पाया है।
अंग्रेजी का असर इतना है कि भारत भूमि में बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल करने वाली हस्ती भी सफलता के बाद अंग्रेजी बोलने को मजबूर हो जाती है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के भारतीय खिलाड़ियों पर भी अंग्रेजी बोलने और नहीं बोल पाने की स्थिति में उसे सीखने का दबाव होता है। यहां माना जाता है कि अंग्रेजी की जानकारी और उसे बोलना अंतरराष्ट्रीय मान्यता और कामयाबी की निशानी है। आजादी के बाद से ही राजनीति, प्रशासन और कारोबार में अंग्रेजी बोलने-जानने वालों को मिलती रही तरजीह ने इस धारणा को पुष्ट ही किया है। इसलिए जो लोग अंग्रेजी नहीं बोल पाते, वे खुद को हीन मानने लगते हैं।