हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों का आपस में मेल जोल सूफियों के प्रयासों की देन है। बाबा फरीद और हज़रत निजामुद्दीन औलिया की ख़ानक़ाहों में योगियों और पंडितों का आना-जाना लगा रहता था। हज़रत अमीर खुसरौ ने हिन्दवी और फ़ारसी में कलाम लिखे, जो आज भी जनमानस के बीच प्रचलित हैं और गाये जाते हैं, सूफी खानकाहें शायद एक मात्र ऐसी जगह थी जहाँ जाति, धर्म और संप्रदाय से पृथक एक साथ बैठकर स्वछन्द चर्चाएं होती थी।
तेरहवी शताब्दी की पूर्वार्ध में शेख हमीदुद्दीन नागौरी ने राजस्थानी किसान का जीवन चुना। वो आम लोगों की तरह शाकाहारी खाना खाते थे और हिन्दवी बोलते थे। उन्होंने बादशाह द्वारा एक गाँव का फतूह अस्वीकार कर दिया और एक बीघे पर खुद खेती करके जीवनयापन करते थे। उनकी पत्नी आम राजस्थानी औरतों की तरह गाय का दूध निकालती थीं और कपड़े सिलती थीं। उनकी इस मानवीय सरल जीवन शैली ने काफी लोगों को आकर्षित किया। सियर उल औलिया में भी इसका ज़िक्र आता है कि शैख़ हमीदुद्दीन नागौरी के पास जो एक बीघे ज़मीन थी, उसमे से आधे बीघे में जो फसल होती थी उसे वह बेच दिया करते थे और शेष आधे बीघे के अन्न से साल भर खाना पीना होता था. दूसरे चिश्तिया संतों की तरह इन्होने भी ग़रीबी को अपना आभूषण बना रखा था।
जब स्थानीय जागीरदार को उनकी इस हालत का पता चला तो वह उनके हुज़ूर पेश हुआ और अर्ज़ किया-हज़रत आप की यह हालत हमसे देखी नहीं जाती। यह कहकर उस ने पांच सौ टंको से भरी थैली सामने रख दी और एक फ़रमान भी पेश किया, जिस में कुछ बीघे ज़मीन उन्हें उपहार स्वरुप देने की बात थी। हज़रत ने उन उपहारों पर एक नज़र डाली और फ़रमाया हमारे सिलसिले में ज़मीन का उपहार लेने की प्रथा नहीं है। मैं अपनी एक बीघे ज़मीन से खुश हूँ. हज़रत एकाएक वहां से उठ खड़े हुए, और जागीरदार को बैठने का इशारा कर अन्दर हरम में चले गए। अन्दर जाकर उन्होंने अपनी पत्नी को यह पूरा हाल कह सुनाया। उनकी पत्नी ने खुद की बुनी एक चुनरी सर पर ओढ़ रखी थी, और साथ में फ़क़ीरी के गर्व को भी ओढ़ रखा था। उनके कपड़े जगह जगह से फट चुके थे जिनपर पैबंद लगा कर उन्होंने पहन रखा था। हज़रत की बात सुनकर वह बिफर गईं। उन्होंने हज़रत से फ़रमाया – मेरी सालों की तपस्या को आप इन चंद टंकों में व्यर्थ करना चाहते हैं। देखिये! मैंने सूत कात कर ये दो पोले बनाये हैं। इनसे मेरे सर ढकने और आप के पहनने लायक कपड़ा मैं सिल दूंगी। यह जवाब सुनकर हज़रत के चेहरे पर मुस्कान तैर गई। वह बाहर आये और दृढ शब्दों में जागीरदार से फरमाया- भाई ! आप अपने ये उपहार वापस ले जाएँ ! हमें इसकी कोई ज़रुरत नहीं है।
ये रहा है सिलसिला ए चिश्त का किरदार आज भी हजरत ख्वाजा सूफी हमीदुद्दीन नागौरी रहमतुल्लाह अलैह् की बारगाह में किसी भी किस्म का मीट खाकर जाना मना है।अल्लाह हम सब को इन बुजुर्गाे के बताए रास्ते पर चलने की तौफीक अता फरमाए।
प्रस्तुतिः अमन रहमान