देहरादून। सरकारी तंत्र और मेडीकल कालेज संचालकों की दुरभि संधि के चलते हुए सैकड़ों मेडीकल छात्र-छात्राओं से इतनी भारी भरकम धनराशि के लिये नोटिस जारी कर दिया गया है जो अभिभावक अपना सर्वस्व बेच कर भी भर पाने में असहाय नजर आ रहे हैं।
वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट में नीट परीक्षा के माध्यम से तीन सरकारी व तीन गैर सरकारी मेडीकल कालेज के लिये लगभग 700 सीटों की एच0एन0बी0 मेडीकल यूनीवर्सिटी द्वारा काउंसिल की गई जिसमें स्टेट कोटे के सीटों के लिये चार लाख एवं मैनेजमेन्ट कोटे की सीटों के पांच लाख शिक्षण शुल्क सरकारी स्तर पर निर्धारित किया गया था।
मेडीकल यूनिवर्सिटी द्वारा आबन्टित कालेज में छात्र-छात्रा प्रवेश लेने गये तो निजी कालेजों ने प्रवेश देने से इंकार कर दिया जिसके विरूद्ध कई अभिभावकों ने उच्च न्यायालय की शरण ली। हाईकोर्ट ने अण्डरटेकिंग देने के निर्देश के साथ प्रवेश के आदेश पारित किये। हाईकोर्ट के आदेश पर छात्र-छात्राओं से अण्डरटेकिंग ले ली गई। इसके बाद छात्र-छात्राओं के साथ जो छल किया गया उसके तहत फीस निर्धारण समिति ने निजी कालेजों की इस दलील को आधार मान कर फीस निर्धारित नहीं की कि अब मेडिकल कालेज विश्वविद्यालय में परिवर्तित हो गये हैं अतः फीस निर्धारण का अधिकार विश्वविद्यालय को है न कि सरकार को।
कई महीने तक इस मामले को उत्तराखण्ड सरकार ने हल न करके लम्बित बनाये रखा और एक पखबारे पूर्व मंत्रीमण्डल की बैठक में निजी मेडिकल कालेजों को विश्वविद्यालय होने के आधार पर फीस तय करने की खुली छूट दे दी।
एक छात्रा की अभिभावक नीरू सिंघल के अनुसार देश के महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात आदि राज्यों में 200 से भी कम अंक पाने वाले छात्र-छात्रायें बारह लाख वार्षिक में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं जबकि उत्तराखण्ड में 460 से 525 अंक पाने वाले छात्र-छात्राओं से बाईस लाख की फीस निर्धारित की गई है। राज्य सरकार द्वारा दी गई छूट का इस हद तक नाजायज फायदा लेने की कोशिश सामने आयी है कि समान्य परिवारों के मेधावी छात्र-छात्राओं से चालीस लाख रूप्यों की मांग की जा रही है।
सत्तावन सीटों के प्रचंत बहुमत वाली त्रिवेन्द्र सरकार इस मामले में अब तक निजी मेडीकल कालेजों के हित में काम करती दिखाई दे रही है। अब देखना है कि वह इस मामले में न्यायोचित हल करवाते हैं या फिर यूं ही अपने राज्य के मेधावी छात्र-छात्राओं को दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर करेंगे।
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